कोरोना काल में बच्चों के बचपन पर लगा लॉक, पढ़ाई के नाम पर लगी मोबाइल की लत
–अनलॉक-4 में भी बच्चों की पढ़ाई को नहीं लिया गया ठोस निर्णय
-मार्च माह से बच्चों की स्वच्छन्दता पर लगी हुई रोक, भविष्य पर उठ रहे सवाल
वैली समाचार, देहरादून।
वैश्विक महामारी कोरोना ने बच्चों को घर में कैद कर दिया है। सिस्टम अनलॉक एक से चार तक पहुंच गया है। मगर, नौनिहालों की सुध कोई नहीं ले रहा है। इसके नकारात्मक परिणाम देखने को मिल रहे हैं।
बच्चे मार्च मध्य से घरों में कैद हैं। उनकी स्वच्छंदता पर पूरी तरह से कोरोना का ग्रहण लग गया है। उनकी उछल कूद का दायरा सिमट गया है। ये बच्चों के समुचित विकास को प्रभावित कर रहा है। इस प्रकार के संकेत दिखने भी लगे हैं। कोढ़ पर खाज ये कि समाज और व्यवस्था ने उन्हें ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर मोबाइल में उलझा दिया है। सुबह-शाम अधनींद में बच्चे मोबाइल की स्क्रीन पर आंखे गढ़ाए दिख जाएंगे। मोबाइल ने बचपन को पूरी तरह से अपने आगोश में ले लिया। ये ठीक उसी तर्ज पर हो रहा है जैसे पहले मोबाइल स्टेटस सिंबल बना, फिर जरूरत और अब मुसीबत बनने लगा। ये सब ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर हो रहा है। इससे अभिभावकां को कुछ देर का सुकून मिल सकता है कि बच्चे पढ़ रहे हैं। मगर, मोबाइल से पढ़ने की प्रैक्टिस बच्चों को बीमार कर रही है।
बच्चे एकाकीपन की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है कि उनका बचपन छीन रहा है। इससे बच्चे कई विकारों की जद में आ रहे हैं। ये चिंता की बात है। समाज और व्यवस्था को इससे पर गौर करना चाहिए। सुरक्षित बचपन के साथ ही स्वच्छंद बचपन को भी प्रमोट करने की जरूरत है। इसके लिए घर और घर के बाहर बच्चों की स्पेस की चिंता करनी होगी। इसे मुददा बनाना होगा। सोचना होगा कि क्या घर के आस-पास बच्चों के लिए पार्क और मैदान हैं। क्या आज के बच्चों को फिजिकल एक्सरसाइज का मौका मिल रहा है। इसके लिए आस-पास कोई व्यवस्था है। स्कूल इस पर गौर कर रहे हैं। क्या हम बचपन को पढ़ाई की रटंत विद्या की भेंट तो नहीं चढ़ा रहे हैं। देखना होगा कि शहरों में बनीं कालोनियों में पार्क की अनिवार्यता के नियम फॉलो हो रहा है। सच ये है कि ऐसा नहीं हो रहा है। व्यवस्था इस पर गौर नहीं कर रही है। यहीं से बच्चों के साथ अन्याय की शुरूआत हो रही है। इस पर आवाज उठाने की जरूरत है। समाज के जागरूक लोगों को इसके लिए आगे आना होगा। ताकि बच्चों को उछल कूद के लिए स्थान मिल सकें। उन्हें घरों में कैद होने के लिए मजबूर न हो। उनका दिन मोबाइल स्क्रीन का मोहताज न बनें।
डॉ मधु थपलियाल
(लेखिका- हायर एजुकेशन में एसो. प्रोफेसर है।)